उत्तराखंड़ आंदोलन में वामपंथ के योगदान का वो सच जिसे भाजपा और कांग्रेस ने आपसे छुपा कर रखा

उत्तराखंड़ आंदोलन में वामपंथ के योगदान का वो सच जिसे भाजपा और कांग्रेस ने आपसे छुपा कर रखा

जब हर साल 9 नवम्बर 2000 आता है तो प्रत्येक उत्तराखंड़ी राज्य स्थापना दिवस को धूम-धाम से मनाता है. राज्य की सरकार और आमजनों द्वारा कई कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं. सरकार के हर कार्यक्रमों में हर साल सत्ता में आसीन सरकार कहती है कि सरकार उत्तराखंड़ के शहीदों के सपनों का उत्तराखंड़़ बनायेंगी परन्तु

जब हर साल 9 नवम्बर 2000 आता है तो प्रत्येक उत्तराखंड़ी राज्य स्थापना दिवस को धूम-धाम से मनाता है. राज्य की सरकार और आमजनों द्वारा कई कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं. सरकार के हर कार्यक्रमों में हर साल सत्ता में आसीन सरकार कहती है कि सरकार उत्तराखंड़ के शहीदों के सपनों का उत्तराखंड़़ बनायेंगी परन्तु उत्तराखंड़ की हकीकत आप, हम, सभी जानते हैं.इतने सालों में उत्तराखंड कितना विकास कर पाया है यह किसी से छुपा नहीं है..उत्तराखंड़ राज्य आंदोलन में एक ऐसे इतिहास को भाजपा और कांग्रेस की सरकारों ने जनता से छुपा दिया. जिससे ज्यादातर लोग आज भी रूबरू नहीं है. वो मुद्दा है उत्तराखंड़ के राज्य आंदोलन में वामपंथ की भूमिका का…..

उत्तराखंड में आजादी के क्रान्तिकारी और पेशावर कांड के जननायक वामपंथी विचारधारा के कामरेड वीर चंद्र सिंह गढ़वाली की महत्वपूर्ण भूमिका रही है. इसके साथ ही आईएऩए की स्थापना में कई लोग वामपंथ से जुड़े रहे.टिहरी राजशाही के खात्मे के लिए कामरेड नागेन्द्र सकलानी और कामरेड मोलू भरदारी का योगदान अतुलनीय रहा है. आजादी के इतने सालों बाद भी जब पहाड़ के संर्घषों की बात होती है तो कामरेड इन्द्रेश, कामरेड समर भंडारी मैखुरी और कामरेड अतुल सती हर संर्घषों में दिख जाते हैं.चाहे वो धामी सरकार में पेपर लीक का मुद्दा हो या जोशीमठ की धसती जमीन को बचाने का आंदोलन हो.हर संर्घर्षों में आपको वामपंथी पार्टी नेता दिख जायेंगे. लेकिन जब से सत्ता में बीजेपी की सरकार आयी है तब से वामपंथ को बीजेपी ने सबसे ज्यादा टारगेट किया है.बीजेपी, कांग्रेस से ज्यादा अपना विरोधी वामपंथियों को मानती है.जिससे सवाल पैदा होता है आखिर जनता के सामने कैसे उत्तराखंड आंदोलन के समय वामपंथ के संर्घर्षों और इतिहास को कैसे लाया जा सकें.जिससे जनता को उत्तराखंड़ राज्य आंदोलन में वामपंथ की महत्वपूर्ण भूमिका का पता लग सके………..

उत्तराखंड़ राज्य आंदोलन के साल 1994 में उत्तर प्रदेश की तत्कालीन मुलायम सरकार ने पर्वतीय क्षेत्र के लोगों को मेडिकल में मिल रहे आरक्षण को समाप्त कर दिया तब इसके खिलाफ वामपेथी स्टूडेंड के संगठन एसएसआई ने 24 जुलाई 1994 को देहरादून के सर्किट हाउस में मुलायम सिंह को काले झंड़े दिखाकर ज्ञापन देकर विरोध जताया था.खटीमा और मसूरी गोलीकांड के बाद वामपंथ से जुड़े कार्यकर्ताओ ने नारा दिया था “एक ही नारा, एक ही जंग, लेके रहेंगे उत्तराखंड़”.1 अक्टूबर 1994 को दिल्ली कूच के लिए आंदोलनकारी चले जिसमें एसएफआई और वामपंथी दलों के लोग भी शामिल रहे. जिसके बाद यूपी पुलिस के द्वारा उत्तराखंड़ के राज्य आंदोलनकारियों को नारसन और रूड़की में रोका गया. आदोलनकारियों की काफी जद्दोजहत के बाद आंदोलनकारी जैसे-तैसे रामपुर तिराहा तक पहुंच सकें. इसके बाद रामपुर तिराहा में वो हुआ जिसकी कल्पना किसी ने भी नहीं की थी. उत्तराखंड़ के राज्य आंदोलनकारियों पर गोलियां चलाई गयी.जिसमें कई आंदोलनकारियों की मौके पर ही मौत हो गयी और कई लोग घायल हो गए. रिर्पोट के अनुसार कई महिलाओं के साथ अमानवीय कृत्य किया गया.रामपुर तिराहा चौक पर उत्तराखंड़ आंदोलनकारियों का नेतृत्व करते हुए माकपा नेता कॉमरेड सुरेंद्र सिंह सजवाण भी मौजूद रहे. जिन्होने स्तिथि को बिगड़ने से रोकते हुए अपनी सूझ-बूझ का परिचय दिया..3 अक्टूबर को वामपंथी नेता चौधरी ओमप्रकाश के बेटे “दीपक वालिया” को जोगीवाला में पुलिस के द्वारा गोली मारकर शहीद कर दिया गया. इसके साथ ही पुलिस ने कामरेड़ सजवाण को गिरफ्तार कर लिया था.

इसी दौरान 4 अक्टूबर को वामपंथी नेता अंनत आकाश ने पुलिस की दमनकारी की नीति का विरोध करते हुए, मानवाधिकार आयोग के अध्यक्ष जस्टिस रंगनाथ मिश्र से पुलिस की दमनकारी नीति पर बातचीत करके फैक्स भेजा. जिसके बाद मानवाधिकार आयोग ने मुलायम सरकार को नोटिस जारी किया. इससे पहले भी वामपंथी नेताओ के द्वारा राज्य की मुलायम सरकार को कई विभागों से नोटिस जारी किए जा चुके थे. मंसूरी गोलीकांड़ का विरोध करते हुए “कामरेड सीताराम येचुरी” सहित कई सांसदों और नेताओ की गिरफ्तारी देहरादून में हुई.एसएफआई ने केंद्रीय गृह सचिव पदमनाभैया से मुलाकात करके पूरे मामले पर जानकारी देकर मुलायम सरकार पर कार्यवाई की मांग की गई. मुज्जफरनगर कांड में आंदोलनकारी महिलाओं के साथ हुए अमानवीय कृत के खिलाफ जनवादी महिला समिति के अखिल भारतीय प्रतिनिधिमंडल “कामरेड वृंदा करात” के नेतृत्व में राज्य का दौरा करके महिलाओ के साथ हुई अमानवता के खिलाफ आवाज़ उठाई. इसके बाद महिला समीति के द्वारा महिला आयोग और केन्द्र सरकार को अपनी रिपोर्ट सौंपी, जिसमें महिलाओ के साथ हुई ज्यादती का जिक्र था.राज्य आंदोलन के दौरान ही “टिहरी में वामपंथी पार्टी के दफ्तर” पर पुलिस ने हमला कर कार्यालय को तहस नहस कर दिया. ये हमला केवल इसलिए किया क्योंकि “कामरेड बच्चीराम कौंसवाल” “संयुक्त संघर्ष समिति “से जुड़े हुए थे.जिससे सरकार औऱ पुलिस काफी नाराज थी.

इसके ही वामपंथी पार्टी से जुड़े हुए कई नेताओ को पुलिस ने हिरासत में ले लिया था.अकेले देहरादून में ही गिरफ्तारी के बाद बरेली, उन्नाव व आजमगढ़ की जेलों से जाने वाले में शंभूप्रसाद मंमगाई, नरेन्द्र राणा, कुंवरपाल, प्रेम बहुखंडी, सुरेश थापा, रघुवीर तोमर, शेर सिंह राणा, जैसे कई वामपंथी नेता थे. इसके साथ ही मसूरी में कमल भंड़ारी सहित कई नेताओ को पुलिस का उत्पीड़न झेलना पड़ा. गोपेश्वर में दमन और उत्पीड़न के खिलाफ कामरेड राजेन्द्र नेगी, मदन मिश्रा, ज्ञानेन्द्र खंलवाल, संजय पुंडीर,, यूएन बलोनी जैसे कई वामपंथी की गिरफ्तारी हुई.उत्तराखंड राज्य आंदोलन में वामपंथ के किसान और मजदूरों के आंदोलन करने वाले कामरेड शिवप्रसाद देवली, राजेन्द्र पुरोहित, जगदीश राणा, वीरेंद्र भंडारी, किशन गुनियाल, मोहन मंदोलिया का उल्लेखनीय सहयोग रहा है. इसके साथ ही छात्र संगठन के रूप में वेदिका वेद, नरेन्द्र राणा, मोहन चौहान, मुन्ना राणा, अंजुला त्यागी, लेखराज, दीपक बड़थ्वाल, कलम सिंह लिंगवाल, गणेश डंगवाल, रोशनी रमोली, नरेंद्र कठैत, भरत सिंह नेगी, योगेंद्र उनियाल, ओंकार बहुगुणा जैसे कई वामपंथी नेताओ ने उत्तराखंड राज्य आंदोलन में अपना महत्पूर्ण योगदान दिया.

उत्तरांचल प्रेस क्लब की 2022 की वार्षिक पुस्तिका “गुलदस्ता उत्तराखंड आंदोलन, संस्मणों” का दस्तावेज में “कामरेड अंनत आकाश” ने “उत्तराखंड राज्य आंदोलन में वामपंथ की महत्वबूर्ण भूमिका” पर लेख लिखा है.जिसमें उन्होने उत्तराखंड राज्य आंदोलन के संर्घर्षों के दौर में वामपंथ की भूमिका को बताया है.

उत्तराखंड राज्य आंदोलन में सीपीआई, सीपीआई (एम), सीपीआई (एमएल) और वामपंथ के स्टूडेंट फेडरशन एआईएसएस, एसएफआई के छात्रों ने मिलकर राज्य आंदोलन की लड़ाई लड़ी उसके बावजूद सत्ता में आसनी सरकार और उनके सर्मथक उन्हे राज्य का हितैषी नहीं समझतेे हैं. उत्तराखंड़ को बने हुए आज 22 साल से ज्यादा हो गये हैं लेकिन उत्तराखंड़ की समस्यायें आज भी पहाड़ जैसी बनी हुई है. आज उत्तराखंड़ के मैदानी जिलों के बढ़ती हुई आबादी के कारण मलिन बस्तियों में तब्दील होते जा रहे हैं और पहाड़ के जिले हर दिन पलायन से वीरान होते जा रहे हैं. सपनों का उत्तराखंड आज भी कोसों दूर नजर आता है…..

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